नक्सलियों की जड़ को पकड़ें

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हाल ही में गृहमंत्री ने इस बात का दावा किया है कि भारत नक्सलवाद समाप्ति के करीब है। उनका ऐसा दावा करना बताता है कि हमारे सुरक्षा बलों ने नक्सलियों को काबू में कर लिया है। दक्षिण एशियाई आतंकवाद पोर्टल के अनुसार 2018 के शुरूआती छः माह में ही पूरे देश में 122 नक्सली मारे जा चुके हैं। आठ वर्षों में पहली बार इतने कम समय में इतनी बड़ी संख्या में नक्सली मारे गए हैं। नक्सलियों के दम तोड़ने का प्रमाण उनका 223 जिलों से 90 जिलों में सिमट जाना है।

जिस प्रकार से सरकार ने सुरक्षा और विकास को आधार बनाकर अपनी नीतियाँ और कार्ययोजना को अंजाम दिया है, उसी के परिणामस्वरूप नक्सली समस्या पर नियंत्रण पाया जा सका है। सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़क, स्कूल, मोबाईल टावर, बैंक, पोस्ट- ऑफिस आदि का निर्माण करने के साथ ही इन क्षेत्रों की गरीबी को कम करने की दिशा में कदम उठाए हैं। ब्रूकिंग्स ब्लॉक में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार 2022 तक भारत के 3 प्रतिशत से कम लोग गरीब कहलाए जाएंगे। एक अनुमान के अनुसार 2030 तक बहुत ज्यादा गरीबी वाली स्थिति तो खत्म ही हो जाएगी।

नक्सलियों के सिर उठाने का इतिहास
सरकारी प्रयास प्रशंसनीय हैं, और ये सकारात्मक भविष्य की ओर इशारा भी करते हैं। परन्तु पिछले 50 वर्षों में दो बार ऐसा हुआ है, जब सरकार ने नक्सल समस्या को खत्म समझा था। 1971 में चारू मजूमदार की गिरफ्तारी और 1972 में इस नक्सली नेतृत्व की मृत्यु के साथ ही इस आतंक का अंत समझा गया था।

1980 में आंध्रप्रदेश में पीपुल्स वार गु्रप के बनने के साथ ही नक्सली फिर से सिर उठाने लगे, और धीरे-धीरे ये कई राज्यों में फैल गए। 1991 में इनका आतंक चरम पर था। उस दौरान भी सरकार ने इनका घोर दमन किया था।

इस समस्या का तीसरा सोपान सन् 2000 में चरम वामपंथियों द्वारा पीपुल्स गोरिल्ला आर्मी बनाने के साथ शुरू हुआ। 2004 में माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ हुए इनके गठबंधन ने इनकी जड़ों को बहुत मजबूत कर दिया। 2009 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने पुलिस प्रमुखों को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘वामपंथी अतिवाद, देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है।’

वर्तमान स्थिति
माना कि आज सरकार ने नक्सलियों को काबू में करके अपनी शक्ति दिखा दी है। परन्तु नक्सलियों को जन्म देने के कारणों का अंत नहीं हो सका है। 2008 में ही योजना आयोग के विशेषज्ञ समूह ने चेतावनी दे दी थी कि स्वतंत्रता के बाद से ही संसाधनों और अवसरों की उचित पहुँच न होने से समाज के वंचित व पिछड़े वर्गों और समूहों में असंतोष की स्थिति बनती जा रही है। आज भारत में 119 ऐसे अरबपति हैं, जिनकी सम्पत्ति का आकलन डॉलर में करने पर अमेरिका और चीन के बाद भारत का नंबर आता है। दूसरी ओर, इतनी गरीबी है।

भ्रष्टाचार और पारदर्शित के स्तर पर हम विश्व में दो पायदान नीचे ही लुढ़क गए हैं। वंचितों के असंतोष का एक बहुत बड़ा कारण भ्रष्टाचार है। ऐसा अनुमान है कि माओवादियों ने पूर्वोत्तर क्षेत्रों एवं केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु के संगम पर अपने अड्डे बनाने शुरू कर दिए हैं।

भारत सरकार के पास अब दो ही तरीके हैं। पहला, या तो वह नक्सली आंदोलन को कुचल दे। इस स्थिति में समस्या के नए अवतार के रूप में जन्म लेने की संभावना बन सकती है। दूसरे, माओवादियों से बातचीत करके उनके असंतोष के कारणों को दूर दिया जाए।

एक शक्ति सम्पन्न की ओर से शांति की गुहार को हमेशा प्रशंसनीय समझा जाता है। इसमें सफलता की उम्मीद रहती है। अतः पूर्ण सावधानी बरतते हुए सरकार माओवादियों के साथ एक शांति समझौता कर सकती है।

 


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Hemant Bhatt

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