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पिछले सप्ताह मद्रास उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को टोल गेट पर विशिष्ट व्यक्तियों के लिए अलग लेन रखने का निर्देश दिया। जाहिर सी बात है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी इन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों में स्थान रखते हैं। न्यायालय ने टोल लेने में न्यायाधीशों के 10-15 मिनट के इंतजार को खेदजनक बताया।
न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों की पहाड़ जैसी संख्या किसी से छुपी हुई नहीं है। सर्वोच्च न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अनुसार देश के सभी न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों की संख्या 3.3 करोड़ के आसपास पहुँच गई है। ऐसे में न्यायाधीशों से अपेक्षा की जा सकती है कि वे प्रशासनिक मामलों में न उलझकर न्याय करने पर ध्यान दें।
न्यायालय का यह आदेश दरअसल सीधे-सीधे वी आई पी मानसिकता को ही ऊजागर करता है, जो भारत के शासक वर्ग के डी एन ए का हिस्सा बन चुकी है। प्रजातंत्र की अब्राहम लिंकन द्वारा दी गई परिभाषा से उलट हमारी प्रजातांत्रिक सरकार वी आई पी लोगों द्वारा बनाई गई, उन्हीं की और उन्हीं के लिए है। ये वी आई पी जो चाहे कर सकते हैं। चाहे लोगों को इसके लिए कितना भी कष्ट क्यों न उठाना पड़े।
स्वतंत्रता के पश्चात्, भारत ने अपने को संप्रभुतासंपन्न प्रजातांत्रिक गणराज्य घोषित करते हुए अपने संविधान में ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ लिया था। संप्रभुता, प्रजातांत्रिक, समाजवादी और गणराज्य जैसे चार शब्दों का केन्द्रीय भाव, देश के लोगों की सर्वोच्च सत्ता की स्थापना करना था। राजनीतिज्ञों एवं अधिकारियों को जनता का सेवक बनकर रहना था। परन्तु देश के संभ्रांत शासक वर्ग ने समाजवाद और साम्यवाद की सुविधाजनक नई परिभाषा गढ़ते हुए सारी सुविधाओं और विशेषाधिकारों से स्वयं को लैस कर लिया, और जनता को गरीबी, अभावों और कष्टों में जीने के लिए छोड़ दिया।
संभ्रांत वर्ग तो दिल्ली जैसे महानगरों के आलीशान बंगलों में रहने लगा, और गरीब जनता को नगरों की परिधि पर ऊभरी गरीब और मलिन बस्तियों में जीने को मजबूर होना पड़ा। धीरे-धीरे, सरकारी दफ्तर जल्द-से-जल्द धन कमाने का साधन बनते गए। समय के साथ-साथ विशेषाधिकृत दर्जे ने राजनीतिज्ञों और अधिकारियों को इस हद तक बेशर्म बना दिया कि वे इसे अपना अधिकार समझते हुए, जनता पर सामंतों की तरह राज करने लगे।
जैसे-जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा एवं बुनियादी ढांचे जैसी मूलभूत और सार्वजनिक सेवाओं का स्तर गिरता गया; संस्थाएं भ्रष्ट होती गईं, वैसे-वैसे इस तथाकथित संभ्रांत वर्ग और आम जनता के जीवन-स्तर के बीच की खाई बढ़ती गई। साथ ही संभ्रांत वर्ग की थोपी गई वी आई पी संस्कृति के प्रति देश के लोगों में कहीं गहरे गुस्से, तिरस्कार और नफरत का भाव जन्म लेता चला गया।
वी आई पी संस्कृति को बनाने और उसका संरक्षण करने के लिए कांग्रेस सरकार बहुत हद तक जिम्मेदार है। सन् 2014 में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बाद जनता, अधिकारियों और राजनीतिज्ञों के बीच संतुलन बनाकर चलना, सरकार की बहुत बड़ी जीत हो सकती थी। प्रधानमंत्री ने अपने स्तर पर अनेक उदाहरण भी प्रस्तुत किए। परन्तु उन्होंने अपने कार्यालयों को व्यक्तिगत लाभ लेने और जनता से दुव्र्यवहार करने के लिए कभी टोका नहीं। यही सिद्धान्त उनके पूर्व प्रधानमंत्री ने भी अपना रखा था। उन्होंने अपनी छवि को ही पाक-साफ रखने पर पूरा ध्यान केन्द्रित रखा।
प्रधानमंत्री मोदी, स्वयं तो वी आई पी संस्कृति के प्रति आकर्षित नहीं लगते, परन्तु वे अपनी तथा सम्बद्ध पार्टी के सदस्यों को सार्वजनिक रूप से बुरा व्यवहार करने से रोकने में विफल रहे हैं।
विमान तलों पर बोर्डिंग से पहले सुरक्षा जाँच में छूट के लिए लगाई वी आई पी की 30 से अधिक श्रेणियों के बोर्ड देखकर तो विदेशी हतप्रभ रह जाते हैं। वी आई पी संस्कृति का इससे घिनौना उदाहरण और क्या होगा कि शिवसेना के एक सांसद ने गत वर्ष एयर इंडिया के एक 60 वर्षीय कर्मचारी को चप्पल से मारने का डर दिखाया था। ऐसा करने पर इस सांसद को पार्टी से बहिष्कृत कर दिया जाना था। परन्तु इस समय वी आई पी संस्कृति वाले देश में उल्टे शिवसेना ने हवाई यात्राओं में बाधा डालने की धमकी दे डाली। केन्द्र ने भी इस घटना पर हथियार डालते हुए एयर इंडिया को निर्देश दिए कि वह उक्त सांसद को अपनी ‘नो-फ्लाई’ सूची से हटाए। इस समस्त प्रकरण में प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी क्या सिद्ध करती है?
इसके विपरीत एक कमजोर प्रजातांत्रिक देश पाकिस्तान में उसके किसी मंत्री ने विमान की उड़ान में दो घंटे की देर करवाई, जिसका खामियाजा उन्हें जनता के गुस्से के चलते उस विमान में उड़ान न भर पाने के रूप में भुगतना पड़ा।
भारत की जनता भी इस वी आई पी संस्कृति से थक चुकी है, और छुटकारा पाना चाहती है। जनता को इस त्रासदी से मुक्त करने का बीड़ा किसी सशक्त प्रधान नेतृत्व को ही उठाना होगा।
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