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राज्य वित्त आयोग एक ऐसी संस्था है, जिसका गठन संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के द्वारा किया गया था। इसका उद्देश्य राज्य और उससे निचले स्तर के प्रशासन के वित्तीय संबंधों को युक्तिसंगत बनाना था। इसका मुख्य कार्य जनता को पहुँचने वाली जन-सेवाओं में आने वाले वित्तीय क्षैतिज असंतुलन को दूर करना रहा है। परन्तु केन्द्र, राज्यों एवं अन्य व्यावसायिक संस्थाओं में इसके प्रति उदासीनता देखने को मिलती है।
संविधान के अनुच्छेद 243 (आई) के अनुसार संवैधानिक संशोधन के एक वर्ष के अंदर ही राज्यपाल को वित्त आयोग की स्थापना कर देनी चाहिए थी। इसके बाद हर पाँच साल पर इसके पुनर्गठन की व्यवस्था रखी गई है। परन्तु राज्यों ने इसके गठन में नियमितता नहीं दिखाई है। केरल, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर बाकी राज्यों को जहाँ पाँचवे वित्त आयोग की रिपोर्ट जमा करनी चाहिए; वे तीसरे पर ही अटके हुए हैं। इस मामले से कुछ प्रश्न उठ खड़े होते हैं कि क्या संविधान के प्रति निष्ठा दिखाना अपनी सुविधा पर निर्भर करता है? या जिस प्रकार की नियमितता, गंभीरता और अंगीकरण केन्द्रीय वित्त आयोग को लेकर है, वैसा राज्य वित्त आयोगों के लिए क्यों नहीं है?
कुछ कारणों से तीसरे केन्द्रीय वित्त आयोग के गठन से ही आयोग ने योजना और निवेश आवंटन से स्वयं को दूर रखा। सामान्य रूप से राज्य वित्त आयोग ऐसा नहीं कर सका। योजना आयोग की समाप्ति के बाद हांलाकि कुछ ने केन्द्रीय वित्त आयोग का पथ चुना है। अब 15वें वित्त आयोग को अपने निर्णय के क्षेत्र का दायरा बढ़ाना पड़ा है।
नेताओं और नीति-निर्माताओं के मन से इस भ्रम को दूर करने की आवश्यकता है कि केन्द्रीय वित्त आयोग की तुलना में राज्य वित्त आयोग का संवैधानिक दर्जा नीचा है। राज्य वित्त आयोग का गठन भी केन्द्रीय वित्त आयोग के मॉडल पर ही किया गया है। जिस प्रकार से केन्द्रीय वित्त आयोग का काम केन्द्र-राज्य के बीच के ऊध्र्व और क्षैतिज वित्तीय असंतुलन को दूर करना है, उसी प्रकार राज्य वित्त आयोग को राज्य व निचली प्रशासनिक संस्थाओं के बीच करना है।
•राज्य वित्त आयोग के क्षैतिज असंतुलनों को दूर करने के प्रयासों को संज्ञान में नहीं लिया जाता है। जबकि लगभग 2.5 लाख स्थानीय सरकारों के माध्यम से शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने का भार राज्य वित्त आयोग ही पूरा करता है। इस प्रकार राज्य वित्त आयोग एक ऐसी संस्थागत एजेंसी है, जो सहभागी संघवाद के उत्तम मार्ग पर चलती है। इसके माध्यम से प्रत्येक नागरिक को सार्वजनिक सुविधाओं का न्यूनतम लाभ सुनिश्चित किया जाता है।
•अनुच्छेद 280(3) में संशोधन करके दो खंड और जोड़े गए हैं। इनका उद्देश्य पंचायतों और नगरपालिकाओं के संसाधनों में वृद्धि करना है, जिसकी संस्तुति राज्य वित्त आयोग ने ही की थी। यही उपखंड स्थानीय प्रशासन और राज्य वित्त आयोग के बीच एक संपर्क-सूत्र का काम करते हुए वित्तीय संघवाद की स्थापना करते हैं। जब केन्द्रीय वित्त आयोग राज्यों के बीच वितरण और जब राज्य वित्त आयोग क्षैतिज वितरण में असमानताओं को कम कर सकेंगे, तभी भारतीय महासंघ एक धारणीय एवं समग्र राष्ट्र बन सकेगा।
•केन्द्रीय वित्त आयोग को राज्यों और केन्द्र के वित्त संबंधी डाटा की कोई समस्या नहीं है। राज्यों और केन्द्र का वित्तीय रिपोर्टिंग तंत्र दुरूस्त है। परन्तु स्थानीय प्रशासन में यह बहुत ही लचर है, जिसका खामियाजा राज्य वित्त आयोग को भुगतना पड़ता है।
•केन्द्रीय वित्त आयोग से अलग राज्य वित्त आयोग, अनुच्छेद 243(जी) और 243 डब्ल्यू (जो आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए नीति बनाने की बात कहते हैं) एवं 243 जेड डी (जो प्रत्येक राज्य के लिए निचले स्तर पर स्थानिय योजनाओं और पर्यावरण संरक्षण को अनिवार्य बनाता है) की अनदेखी नहीं कर सकते।
यहाँ केन्द्रीय वित्त आयोग पर विकेन्द्रीकृत प्रशासन के निर्धारण में असफल रहने का दोषारोपण भी किया जा सकता है। सच्चाई यह है कि किसी भी केन्द्रीय वित्त आयोग ने राज्य वित्त आयोगों की रिपोर्ट को पढ़ने और उनकी समीक्षा करने की कोशिश ही नहीं की है। भारत के वित्तीय संघवाद में राज्य वित्त आयोगों को एक सही भूमिका निभाने का वातावरण ही नहीं दिया गया। ऐसा किए बिना संवैधानिक संशोधनों के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
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